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धर्मवीर भारती के गद्य साहित्य में नारी के विविध रूपों की विवेचना
सुमन देवी
Page No. : 1-6
ABSTRACT
सृष्टि का उदगम स्त्रोत नारी है। नारी के अभाव में इस सृष्टि की कल्पना भी नही की जा सकती। देव-दानव से लेकर मानव तक सबकी जन्मदात्री नारी है। यह मां, बहन, बेटी, प्र्रेमिका, पत्नी आदि अनेक रूपों में हमारे सम्मुख रही है। जिस प्रकार बिना तार के वीणा और बिना धुरी के पहिया बेकार होता है, उसी प्रकार नारी के बिना पुरूष अधूरा है। देवताओं के साथ नारी का नाम पहले जुड़ा होता है। यथा-सीता-राम, गौरी-शंकर, लक्ष्मी-नारायण, राधे-श्याम इत्यादि। भारतीय विधान संहिता के नियमों के प्रसिद्ध महर्षि मनु ने घोषणा की थी कि जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। प्राणी जगत में ’नारी’ शब्द नर के समानांतर है। इसका प्रयोग स्त्रीलिंग वाची ’मादा’ प्राणियों के प्रतीक रूप में होता हे। किंतु समाज में नारी शब्द सामान्य अर्थ में गृहित नही है क्योंकि उसका स्थान नर से कहीं बढ़कर है। कोमलता, दृढ़ता, स्नेह आदि गुण नर की तुलना में नारी में विशेष रूप से पाए जाते हैं। यही नही रूप-आकार, शरीर-गठन, कार्य-शैली यापन की विविध स्थितियों में नारी विधाता की श्रेष्ठतम अनुकृति सिद्ध हुई है। सीता, पार्वती, सावित्री, महारानी लक्ष्मीबाई इत्यादि नारियां इन्ही आदर्शो का प्रमाण है। भारतीय साहित्य में नारी का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसके बिना साहित्य सृजन ही निरर्थक है। भारतीय परम्परा और हिन्दू शास्त्रों में नारी को ’श्री’ कहा गया है। प्राचीन काल में भी नारी को पुरूष के समान ही अधिकार प्राप्त थे। उसकी उपस्थिति के बिना यज्ञ जैसे धार्मिक कार्य भी पूर्ण नही होते थे। बहुत से कवियों, लेखकों ने नारी में ही परम, प्रियतमा की रहस्यमयी झलक देखी। भक्त कवि तुलसीदास ने भी नारी को समाज में सम्मानित पद पर प्रतिष्ठित किया। उनकी अराध्या जगतमाता सीता का आदर्श चरित्र इसका प्रमाण है।
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