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"दीनदयाय उपाध्याय के आर्थिक विचार के परिप्रेक्ष्य में पूंजीवाद, समाजवाद व बहारी औद्योगिकरण का विरोध तथा स्वावलम्बन उद्योगनीति"
डॉ दर्शना देवी
Page No. : 182-187
ABSTRACT
मूल्य, मांग और पूर्ति के नियमों से तय नहीं हो कर, उत्पादकों की अपनी इच्छा और योजना से तय होते हैं। आर्थिक क्षेत्र में यह एक प्रकार की ‘डिक्टेटरशिप’ है। यंत्र को मनुष्य का सहयोगी बनाने की अपेक्षा मनुष्य को यंत्र का पूर्जा बना दिया है। समाजवाद, व्यक्तिवाद के अतिवाद का विरोध करता है। वह व्यक्ति की अपेक्षा व्यवस्था में परिवर्तन का समर्थक है, व्यक्तिवाद को अव्यवस्था की ही उपज मानता है। "पूँजीवादी अर्थव्यवस्था पहले आर्थिक क्षेत्र पर आधिपत्य जमाकर फिर परोक्ष रूप से राज्य पर अधिकार करती है तो समाजवाद राज्य को ही सम्पूर्ण उत्पादनों का स्वामी बना देता है। उपाध्याय राष्ट्रीय औद्योगिक क्षेत्र में विदेशी पूँजी को बहुत अमंगलकारी मानते थे। उनका मत था कि, "हमारे देश में विेदेशी पूँजी के बल पर औद्योगिकृत नहीं किया जाना चाहिए। भारी औद्योगीकरण के विरूद्ध होते हुए भी उपाध्याय स्वस्थ औद्योगिकरण के विकास के समर्थक थे वे कहते थे कि, "प्रचीन शास्त्रकारों ने वाणिज्य, शिंल्प एवं उद्योग के बारे में लिखा है कि उन्हें ’अपरमात्रिक’ होना चाहिए। किन्हीं आवश्यक वस्तुओं के लिए उन्हें दूसरों पर निर्भर नहीं रहना पडे़। देश में तैयार माल को बाहर निकालने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का उपयोग होना चाहिए।"
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