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याज्ञवल्क्यस्मृति में राजधर्म
Dr. Meenu, Dr. Mamta Rani
Page No. : 76-80
ABSTRACT
प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक एवं धार्मिक साहित्य में ’राजधर्म’ सबसे ज्यादा चर्चा का विषय रहा है। यद्यपि यदि हम प्राचीन इतिहास को देखें तो ज्यादातर राजाओं में ’राजधर्म’ सम्बन्धी गुणों का अभाव रहा है। इन शासकों ने राजधर्म को अनदेखा करते हुए न तो राज्य के हित को देखा और न ही प्रजा-रक्षण के लिए पर्याप्त कदम उठाए लेकिन कुछ शासकों जैसे चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त, हर्ष ने अपने कर्Ÿाव्यों को पूरा करते हुए दिखाया कि एक राजा को कैसा होना चाहिए। इन शासकों का उद्देश्य समाज में सुशासन था। विधिवेŸााओं ने समाज में राजा को आदर्श बनाने के लिए अपनी विधि पुस्तकों में राजधर्म की विवेचना की। मनु ने मनुस्मृति में राजा के अधिकारों और राजधर्म के बीच सम्बन्धों की व्यवस्था की। इसी क्रम में याज्ञवल्क्य ने भी राजधर्म सम्बन्धी प्रावधानों का वर्णन करते हुए कहा है कि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है और उसे अपने कर्Ÿाव्यों की पालना करनी चाहिए।
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