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तुलसी दास के काव्य में व्यक्त भक्ति में सेवक-सेव्य भाव की प्रगाढ़ता
संजीव, कुमार
Page No. : 43-50
ABSTRACT
भारत में भक्ति का उदय कब, कहां और किन परिस्थितियों में हुआ- इस बारे में कोई निश्चयात्मक मत प्रस्तुत नहीं किया जा सका है, पर इतना तथ्य सर्वमान्य है कि जिस प्रकार कर्म और ज्ञान का उद्गम स्थ वेद हैं, उसी प्रकार भक्ति का मूल स्त्रोत भी वेदों में ही उपलब्ध होता है।1 वेदों के सम्यक् अध्ययन से हमें यह ज्ञात होता है कि प्राकृतिक शक्तियों से भयभीत होकर वैदिक ऋषियों ने उनकी विभिन्न देवी-देवताओं के रूप में उपासना प्रारम्भ की। स्पष्टतः यह भक्ति सकाम भक्ति थी। देवी-देवताओं से बदले में सुख, ऐश्वर्य, धन, धान्य आदि की मांग की जाती थी। यद्यपि इन देवी-देवताआंे के सूर्य, इन्द्र, वरूण आदि विभिन्न नाम थे, पर फिर भी ये सब किसी एक ही शक्ति के प्रतीक थे। अतः उस युग की भक्ति में एकेश्वरवाद की प्रधानता दिखायी देती है। ऋग्वेद में आता है- ‘‘एक सद् विप्राः बहुधा वदन्ति।‘‘2 और ‘‘कवयो वचोभिरेकं सन्त बहुधा कल्पयन्ति।‘‘3 विभिन्न देवी-देवताओं की स्तुति करते हुए वैदिक ऋषि देवताओं के साथ प्रेमपूर्ण सम्बंध स्थापित करते हैं- ‘‘अदिति माता स पिता‘‘ 4 और ‘‘द्यौ में पिता‘‘ 5 आदि। इस यह भी सिद्ध होता है कि उस युग की भक्ति में राग-तत्त्व विद्यमान था।
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