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आधुनिक संदर्भ में कबीर वाणी की प्रासंगिकता

सुमित रानी पुत्री श्री सूरजभान
Page No. : 56-59

ABSTRACT

ज्ञानश्रयी धारा के प्रवर्तक सन्त कबीरदास का व्यक्तित्व अदभुत एवं विलक्षण है । साहित्य के दीर्धकालीन इतिहास मध्य युग में कबीर जी का स्थान अतिमहŸवपूर्ण रहा है । इनका जन्म कब एवं कहाँ हुआ इस बारें में जनश्रुतियां बहुत हैं । कबीर चरित्र बोध में स्पष्ट रूप से कबीर का जन्मकाल 1455 वि0स0 बताया गया हैं । एक जगह धर्मदास ने लिखा है -
‘‘चौदह सो पचपन साल गए
चन्द्रवार इक ठाठ ठए। 
जेठ सुदी बसायत को,
पूरणमासी तिथि प्रकट भए’’।।
इस छन्द के अनुसार इनका जन्म सम्बत् 1455 जेष्ठ शुक्ल पूर्णिमा दिन सोमवार माना गया है । अपनी रचनाओं के आधार पर कबीर जी को युग-चेतना का जनवादी भक्त-कवि स्वीकार किया गया है । कबीर वाणी पर रीझ कर विद्वानों ने उन्हें धर्म-गुरू, समाज-सुधारक, लोक स्त्रष्टा, भविष्य दृष्टा, दार्शनिक, कर्मयोगी, भक्त कवि आदि विशेषणों से अलंकृत किया है । वस्तुतः महापुरूष युग विशेष की आवश्यकताओं के अनुसार उत्पन्न होने हैं तथा वे सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करते है, जिससे समाज में मानव मूल्यों का महŸव भी निर्धारित होता है । सतं कबीरदास वाणी भी पूर्णरूप से उनके युग एवं युगीन परिस्थितियों की उपज है । उस युग में विभिन्न मत-मतान्तरों में विश्वास रखने वाले और अपनी-अपनी खिचड़ी पकाने वाले तथाकथित गुरूओं, ज्ञानी-ध्यानियों ने हिन्दू समाज में आडम्बर किए हुए थे । ऐसे समय में कबीर जी ने अपनी प्रखरवाणी एवं तर्कों से इन ढकोसलों एवं अन्ध विश्वास का विरोध किया । कबीर जी ने अपने भक्त, कवि एवं समाज-सुधारक रूप से मध्य युग को जितना प्रभावित किया था, आज भी वे उतने ही प्रभावी हैं । कबीर जी के उपदेशों में जिन विचार-बिन्दुओं की प्रधानता रही, वह वर्तमान परिपेक्ष्य में भी उतनी ही जीवन्त एवं उपयोगी है । क्योंकि जिस प्रकार की सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक सांस्कृतिक एवं शैक्षिक आदि समस्याएं उस समय समाज में जहर  घोल रही थी आज भी स्थिति वैसी ही है धर्म, जाति, राजनीति आदि के नाम पर समाज में बहुत गलत घटनाएं घट रही है जितनी कबीर काल में थी। कबीर जी की अभिव्यक्ति इतनी सरल एवं सहज है कि उसे शिक्षित एवं अनपढ़ समान रुप से अनुभव करते हैं । कबीर काव्य कौरा पांडित्य नहीं बल्कि कबीर-काव्य अनुभूत सत्या का प्रतिबिम्ब है । 


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