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शिवानी की कहानियों में नारी का आत्मबोध

राजबाला, डॉ. विनिता जोशी
Page No. : 1-7

ABSTRACT

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के कथा-साहित्य ने जिस तरह एक वक्त में हिंदी पाठकों का एक नया वर्ग पैदा किया, उसी तरह का श्रेय शिवानी के साहित्य को भी दिया जाता है। कहानी के क्षेत्र में पाठकों और लेखकों की रुचि निर्मित करने तथा कहानी को केंद्रीय विधा के रूप में विकसित करने में उनका अमूल्य योगदान रहा है। वह कुछ इस तरह लिखती थीं कि पढ़ने की जिज्ञासा पैदा होती थी। उनकी भाषा शैली कुछ-कुछ महादेवी वर्मा जैसी रही। उनके पिता अश्विनी कुमार पांडे रामपुर स्टेट में दिवान थे, वह वायसराय के वार काउंसिल में मेम्बर भी रहे। उनकी मां संस्कृत की विदूषी एवं लखनऊ महिला विद्यालय की प्रथम छात्रा रही थीं। उनकी कृतियों से यह झलकता है कि उन्होंने अपने समय के यथार्थ को बदलने की कोशिश नहीं की।शिवानी की कृतियों में चरित्र चित्रण में एक तरह का आवेग दिखाई देता है। वह चरित्र को शब्दों में कुछ इस तरह पिरोकर पेश करती थीं जैसे पाठकों की आंखों के सामने राजारवि वर्मा का कोई खूबसूरत चित्र तैर जाए। उन्होंने संस्कृत निष्ठ हिंदी का इस्तेमाल किया। जब शिवानी का उपन्यास कृष्णकली ख्धर्मयुग, में प्रकाशित हो रहा था तो हर जगह इसकी चर्चा होती थी। मैंने उनके जैसी भाषा शैली और किसी की लेखनी में नहीं देखी। उनके उपन्यास ऐसे हैं जिन्हें पढकर यह एहसास होता था कि वे खत्म ही न हों। उपन्यास का कोई भी अंश उसकी कहानी में पूरी तरह डुबो देता था। भारतवर्ष के हिंदी साहित्य के इतिहास का बहुत प्यारा पन्ना थीं। अपने समकालीन साहित्यकारों की तुलना में वह काफी सहज और सादगी से भरी थीं। उनका साहित्य के क्षेत्र में योगदान बडा है । 


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