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बौद्ध दर्शन की शैक्षिकअवधारणा

मंजू कुमारी, डॉ॰ ज्ञानेंद्र त्रिपाठी
Page No. : 75-78

ABSTRACT

शिक्षा व्यवहारिक एवंआध्यात्मिक जीवन मेंआर्यसत्य देनेवालीऔरअसदमार्ग की ओरलेजानेवालीक्रियाहै। इस प्रकार से शिक्षा अष्टांगमार्ग का अनुशीलनहैजिससेव्यक्तिसम्बोधि की प्राप्तिकरताहै।भगवानबुद्ध के निर्वाण के बादबौद्ध धर्म के विभिन्नसम्प्रदायों द्वारा इस धर्मकोविकसितकियागयाऔरबादमेंपूरे एशियामेंउसकाप्रसारहुआ। ’दुःख से मुक्ति’ बौद्ध धर्म का सदा से मुख्य ध्येय रहाहै।कर्म, ध्यान एवंप्रज्ञाइसकेसाधनरहेहैं।बौद्ध दर्शनअपनेप्रारम्भिककालमेंजैनदर्शन की हीभाँतिआचारशास्त्र के रूपमेंहीथा।बादमेंबुद्ध के उपदेशों के आधारपरविभिन्नविद्वानों ने इसे आध्यात्मिक रूपदेकर एक सशक्तदार्शनिकशास्त्र बनाया।बुद्धाभिमतइनचारोंतत्त्वोंमें से दुःख समुदाय के अन्तर्गत द्वादशनिदान (जरामरण, जाति, भव, उपादान, तृष्णा, वेदना, स्पर्श, षडायतन, नामरूप, विज्ञान, संस्कारतथा अविद्या) तथा दुःखनिरोध के उपायोंमेंअष्टांगमार्ग (सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् स्मृतितथासम्यक् समाधि) का विशेषमहत्वहै।इसकेअतिरिक्तपंचशील (अहिंसा, अस्तेय, सत्य भाषण, ब्रह्मचर्यतथाअपरिग्रह) तथा द्वादशआयतन (पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंचकर्मेन्द्रियाँ, मनऔरबुद्धि), जिनसेसम्यक् कर्मकरनाचाहिए-भीआचार की दृष्टि से महनीय हैं।वस्तुतः चारआर्यसत्यों का विशदविवेचनहीबौद्ध दर्शनहै।प्रस्तुतअध्ययन मेंइन्हीगूढ़ औरव्यवहारिकविचारों की शैक्षिकअवधारणा के अन्तर्गतशिक्षा के उद्देश्योंकोव्यक्तकरने का प्रयासकियागयाहै।


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