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किम् किम् न साधयति कल्पतेव विद्या

सुमित रानी
Page No. : 45-48

ABSTRACT

’किम् किम् न साधयति विद्या‘ हमारे शास्त्रों मे लिखा है कि-कल्पलता के समान विद्या से क्या-क्या प्राप्त नही होता है? अर्थात् विद्या से तो सब कुछ प्राप्त हो सकता है। प्राचीन भारतीय मनीषी इस तथ्य से भली भांति अवगत थे कि शिक्षा व्यक्ति के सर्वांगिण विकास, समाज की चर्तुमुखी उन्नति एवं सभ्यता की बहुमुखी प्रगति की आधारशिला है। इसी कारण प्राचीन समय में शिक्षा को न तो पुस्तकीय ज्ञान का प्रर्यायवाची माना गया है और न ही जीविकोपार्जन का साधन। इसके विपरीत शिक्षा को वो प्रकाश माना गया है जो व्यक्ति को अपना सर्वांगिण विकास करने, उत्तम जीवन व्यतित और मोक्ष प्राप्त करने में सहायता देती है। शिक्षा को प्रकाश एवं शंाति का ऐसा स्त्रोत माना गया है जो हमारी शारीरिक, भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों तथा क्षमताओं का निरंतर एवं सामजस्यपूर्ण विकास करके हमारे स्वभाव को परिवर्तित करती है और उसे उत्कृष्ट बनाती है। विवेकानन्द जी के अनुसारः-
‘‘शिक्षा मनुष्य में पहले से मौजूद दैवी पूर्णता का प्रत्यक्षीकरण है‘‘
वे आगे कहते हैं, ‘‘हमे ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो हमारा आचरण बनाए, हमारे मानसिक बल को बढ़ाए, बौद्विकता का विकास करे और जिसके द्वारा मनुष्य आत्मनिर्भर हो जाए‘‘।
शिक्षा तो मनुष्य को एक पुष्प की भांति विकसित एवं सुगंधित होने में सहायता करती है। जो अपनी सुंदरता एवं सुंगध चारों और फैलाता है। ‘‘पौधे कृषि से विकसित होते हैं और मनुष्य शिक्षा से‘‘ शिक्षा द्वारा ही बच्चा किसी भी समाज में अपने आप को समायोजित कर आत्मिक और राष्ट्र के विकास की ओर अग्रसर होता है। इशावास्योपनिषद के इस श्लोक से शिक्षा के महत्व को समझा जा सकता है ‘विद्यायाऽमृतमश्नुते‘ अर्थात विद्या से अमरता को प्राप्त किया जा सकता है प्रस्तुत लेख के माध्यम से शिक्षा के इस कल्याणकारी रुप को प्रकट करने का प्रयास किया गया है।


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