समकालीनहिन्दीक्रथा-साहित्य मेंअनेकविमर्ष के दर्शनहोतेहैं, यथा-स़़्त्री विमर्ष, दलितविमर्ष, मुस्लिमविमर्ष, किन्नरविमर्षआदि।प्रस्तुतआले़ख ‘किन्नरविमर्ष’ परकेन्द्रितहै।किन्नरोंकोसमाजमेंहिजड़ा, नपुंसक, खुसरो, खोजा, छक्काआदिअनेकनामों से जानाजाताहै। ये संसार के हरदेशमेंपाए जातेहैं। योंतोकिन्नरआमआदमी के सामानहोतेहैं, किन्तुपौरुषमय जननांगो का अभावहोताहै। स्त्री औरपुरुष दोनोंप्रकार के किन्नरहोतेहैं।सामाजिक दृष्टि से इन्हेंहीनभावना से देखा जाताहै।हिंदीसाहित्य अनेककारणों से किन्नरविमर्श की चर्चा का विस्तारकरनेमेंदुर्बलरहाहै।महाभारतमेंषिखंडी का चित्रण किन्नर के रूपमेंहुआहै।अज्ञातवास के समय अर्जुन ने एक वर्ष तककिन्नरबृहन्नला का रूपधारणकियाथा।बेचन शर्मा ने अपनीकहानियोंमेंजिनलौंडेबाजो का उल्लेख कियाहै,वे ये किन्नरहीहैं।निरालाजी के ‘कुल्लीभाट’ का चरित्र समलैंगिकव्यक्ति का है। डॉ. शिवप्रसादसिंह की कहानियों ‘बिंदामहाराज’ और ‘बहाववृत्ति’ मेंकिन्नरकेंद्रमेंहैंजोसमाजमेंसंघर्षरतहैं। वृृन्दावनलालवर्मा का नाटक ‘नीलकंठ’ भीइसी श्रेणी मेंरखा जासकताहै।हिंदीउपन्यासोंमेंलम्बे समय के पश्चात्् नीरजमाधव ने अपनेउपन्यास ‘यमदीप’ से किन्नरविमर्श की चुप्पीतोड़ी।किन्नरसमुदाय के पास न तोउचितरोजगारहैऔर न शिक्षा।वहसर्वथाउपेक्षितहै। एक-दोकिन्नरआत्मकथाएँ आरहीहैं। यह एक क्रन्तिकारीपहलहै।किन्नरअपनीउपस्थितिआजकलविभिन्नव्यवसायों, सामाजिककार्यों एवंराजनीतिआदि क्षेत्रोंमेंकरारहेंहैं।साहित्य भीउन्हेंसमाज के समक्ष प्रस्तुतकरने का प्रशस्तकार्यकररहाहै।
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