प्रवासी-अप्रवासी हिन्दी साहित्य: एक परिचय
डाॅ॰ कमल
Page No. : 148-154
ABSTRACT
आज विश्व में भारतीयों द्वारा विपुल मात्रा में हिन्दी साहित्य सृजन का कार्य चल रहा है। उसकी विस्तृता, सफलता, सार्थकता, स्तरीयता एवं उपादेयता को भारत में पूरा सम्मान मिल रहा है। अब जब विश्व में प्रवासन के कारण नये-नये संस्कृति समूह बन रहे हैं तो ऐसे में भारतीय संस्कृति समूह के विस्तार एवं प्रभाव को हम साहित्य के दर्पण में भी देख सकते हैं। विदेशों में लिखे जाने वाले भारतवंशियों एवं भारतीय साहित्य से पहचान देकर अपने संस्कृत समूह के निर्माण का स्वप्न 1960 के आस-पास डाॅ॰ लक्ष्म मल्ल सिंघवी ने देखा, 2002 में भारत सरकार को दिखाया तथा आज वह प्रवासी दिवस तथा विश्व हिन्दी सम्मेलनों के रूप में साकार हो उठा।
जब विश्व में प्रवासन की एक नयी स्थिति सामने आई कि भारतीय मूल के लोगों का एक प्रवासन निश्चित अवधि तथा पीड़क स्थितियों में हुआ, वह प्रारम्भ में प्रवासन ही कहलाया और एक दूसरा प्रवासन (स्वेच्छापूर्वक) स्वतंत्रता के बाद विश्व की विभिन्न सम्पन्न देशों में शिक्षा, रोजगार व्यापार आदि के लिए हुआ जो कि मूलतः सुखद, प्रवासन था, उसे भी जब प्रवासन कहा गया तो स्वाधीनता पूर्व के विवश प्रवासन तथा स्वाधिनता के बाद स्वैच्छिक प्रवास को कैसे एक मान लिया जाए?
प्रवासी-अप्रवासी हिन्दी साहित्य के कारण जो हिन्दी भाषा का वैश्विक विस्तार हुआ है इसके परिणामस्वरूप विश्व में अनेक देशों में अनेक पत्र-पत्रिकाएँ निकल रही हैं। विश्व जाल पत्रिका की अभिव्यक्ति की विदूषी, युवा पीढ़ी की सम्पादिका पूर्णिमा वर्मा हिन्दी लेखन का विश्व विस्तार कर रही है। ‘वेब दुनिया’, ‘हिन्दी नेस्ट’ आदि इन्टरनेट की हिन्दी पत्रिकाओं ने हिन्दी विश्वजाल बिछाकर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। इसी प्रकार प्रिंट मीडिया ने भी साहित्य के माध्यम से हिन्दी का विश्व विस्तार किया है। इस प्रकार अप्रवासी हिन्दी साहित्य की बहुआयामी प्रयोजनीयता अपने स्वयं के मुख से उद्घोष करती देखी जा सकती है।
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