हिन्दी साहित्य अत्यंत विराट है। हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल स्वर्णयुग कहा जाता है। भक्तिकाल की निर्गुण काव्यधारा में संत कवि कबीर पहुंचे हुए ज्ञानी थे। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी कबीर कवि, चिन्तक, साधक और समाज सुधारक सभी रूपों में हमारे सामने आते हैं। उनका ज्ञान पोथियों से चुराई हुई सामग्री नहीं थी और ना सुनी-सुनाई बातों का ही। वे पढ़े-लिखे तो नहीं थे परंतु सत्संग से जो बातें उन्हें मालूम हुई उन्हें वे अपनी विचारधारा के द्वारा अपना बनाने का प्रयत्न करते थे। कबीर ने अंधविश्वासों, रूढ़ियों, कुरीतियों और अत्याचारों का तीव्र विरोध किया तथा सामाजिक वातावरण में सुधार लाने का प्रयास किया। उन्होंने घूम-घूमकर जो अनुभव बटोरा समाज के जो रूप-रंग-क्रियाएं देखी उनका बारीकी से अन्वेषण किया और उसे सुधारने के लिए तार्किक रूप से जो प्रयास किया, वह अत्यंत सराहनीय है इसलिए वह बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी होने पर भी संत, कवि, चिंतक, साधक, भक्तों से कहीं ज्यादा समाज सुधारक के रूप में हमें दिखाई देते हैं। उनका सामाजिक चिंतन आज भी हमारे लिए प्रासंगिक है।
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