हिंदी साहित्य में भक्तिकालीन निर्गुण काव्यधारा में संतकाव्य को देखा-समझा जा सकता है लेकिन संतकाव्य देश कालातीत है, जिसे किसी स्थान और समय विशेष की सीमा के भीतर नहीं बांधा जा सकता। वह एक धारा है जो अब तक किसी न किसी रुप में बह रही है। यदि भक्तिमार्ग ने काव्य ने मरते हुए हिंदू जाति में प्राण डालें तो संतकाव्य ने उसे सक्रियता प्रदान की। उसमें जन-जीवन के कटु मधुर क्षणों की अनेक भाव लहरियां तरंगित हो रही हैं। जिसका सामाजिक और धार्मिक महत्व तो है ही, नैसर्गिक काव्य सौंदर्य भी उसमें है। इस संतकाव्य में कबीर का चिंतन, अनुभव आदि का योगदान अविस्मरणीय है। जिन्होंने न केवल भक्ति-साधना का काव्य कहा, अपितु उन्होंने अपने समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वासों, आडम्बरों आदि पर भी अपनी चिंतन दृष्टि रखी है। कबीर का काव्य समाज और अध्यात्म दोनों की दृष्टि से उपादेय है। उनका सम्पूर्ण चिंतन उनके अथक अनुभव का परिणाम है।
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