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सांख्यसृष्टिचक्र

सोमनाथ दास
Page No. : 49-50

ABSTRACT

प्रकृतेर्महांस्ततोऽहड़कारस्तस्माद् गण्ष्च षोडषकः।
तस्मादपि  षोडषकात्प´यष्यः  प´य  भूतार्नि।।
साख्य के अनुसार जगत का विकास प्रकृति से होता है जो कि सांख्य के द्वेतवाद में पुरूष के अतिरिक्त अन्य सता है, प्रकृति सतत परिणामी है किन्तु इसकी साम्यवस्था में सख्यपरिणाम होता है अर्थात सत्व गुण को क्रिया प्रतिक्रिया सत्व गुण से, रजस की रजस् से और तमस् की तमस से हाती है, यह साम्यावस्थ तब भंग होती है जब पुरूष के सयोग या सन्निधि के कारण प्रकृति में गुणक्षोभ पैदा होता है और विरूप-परिणाम आरम्भ होता है, यह वैवभ्यावस्था है जिसमें तीनों गुण एक दुसरे से क्रिया-प्रतिक्रिया करते है और गुणों के विभिन्न संयोजनों के माध्यम से ही जगत का विकास होता है। प्रष्न उठता है कि पुरूष और प्रकृति में संयोग क्यों और किस प्रकार होता है क्योंकि पुरूष स्वभावतः षुद्ध चेतन है जबकि प्रकृति अचेतन है। सांख्य का उत्तर है कि पुरूष और प्रृकति दोनों को एक-दूसरे की आवष्यकता होती है। पुरूष चेतन किन्तु सक्रिय है जब एक दुसरे की सहायता करें। प्रकृति पुरूष के सामने खुद का प्रदर्षित करना चाहती है क्योंकि वह विषय, ज्ञेय तथा भोग्य है। पुरूष के कैवल्य हेतु भी आवष्यक है कि वह प्रकृति और उसके विकारों से अपनी भिन्नता को समझें, दोनों के सहयोग की व्याख्या सांख्य ने पंगु अन्घ न्याय के माध्यम से की है, जिस प्रकार कोई लंगड़ा व्यक्ति अन्धे व्यक्ति के कन्धे पर बैठकर रास्ता बताता रहे तो दोनों जंगल पार कर सकते हैं, वैसे ही विराधी स्वभाव के होने के बावजूद पुरूष और प्रकृति भी अपने-अपने उददेष्य की पूर्ति के लिए सहयोग करते है।


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