समाज के दोपहलू स्त्री-पुरूष एक दूसरे के पूरकहै।किसी एक के अभावमेंदूसरे का अस्तित्वनहींहै।उसकेबादभीपुरूष समाज ने महिलासमाजकोअपनेबराबर के समानता से वंचित रखा। यहीपक्षपात दृष्टि ने शिक्षितनारियोंकोआंदोलनकरनेकोमजबूरकियाजोआजज्वलंतमुद्दानारी-विमर्श के रूपमें दृष्टिगोचरहै।हिन्दीसाहित्य मेंछायावादकाल से स्त्री-विमर्श का जन्ममानाजाताहै।समाजिकसरोकारों से लैसबुद्धिजीवियोंऔरकार्यकर्ताओं के बीचलंबे समय से यह लगातारचर्चाऔरचिंता का विषय रहाहैकिहिंदीमें स्त्री प्रश्नपरमौलिकलेखनआजभीकाफी कम मात्रा मेंमौजूदहै।हिंदीसाहित्य की मुख्यधाराजिसेवर्चस्वशालीपुरुष लेखनभीकहाजासकताहै, में स्त्री प्रश्नोंअथवा स्त्री मुद्दों की लगातार उपेक्षा की जातीरहीहै।इसकाअर्थ यह नहींहैकि स्त्री अथवा स्त्री प्रश्नसिरे से गायबहैंबल्कि यह हैकि स्त्री की उपस्थिति या तो यौनवस्तु के रूपमेंहै या यदिवहसंघर्षभीकररहीहैंतोउसकासंघर्षबहुतहदतकपितृसत्तात्मकमनोसंरचनाअख्तियारकिए होताहै। स्त्री की दशाओंपरअनेकसमाजसुधारकों ने चिन्ताव्यक्तकियाऔर यथासम्भवदूरकरने का प्रयासभीजिससेनारी की स्थितिमेंपरिवर्तनहुआ।वर्तमान शोध पत्र मेंनागार्जुन के कथासाहित्य मेंनारी की स्थिति का अध्ययन कियागयाहै।
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