समता और प्रगतिशीलता महेंद्रभटनागर की कविताओं की खासी विशेषता है, वे मानव का मानव से भेद किसी भी दशा में स्वीकारते नहीं हैं, उनके लिए मानव सिर्फ मानव है, न जातिगत भेद मानते हैं और न ही घर्मगत, अर्थगत भेद उन्हें स्वीकार है। वे हर उस स्थिति का विरोघ खुलकर अपनी कविताओं के माघ्यम से करते हैं करते हैं, जहाँ मानव का शोषण किसी भी स्तर पर किया जा रहा हो, वे उसके प्रति हो रहे अत्याचार और अन्याय का जमकर विरोघ करने के साथ उसके प्रति गहरी संवेदना प्रकट करते है। यह संवेदना मात्र दिखाव या फैशन के तौर पर नहीं, बल्कि जीवन मूल्यों के प्रति गहरी आस्था की सार्थक अभिव्यक्ति है। कहीं न कहीं उनकी समता और प्रगतिशीलता का मूल स्वर मार्क्सवाद से सम्मिश्रित होता दिखाई देता है। कवि मन जब भी समता की घरती पर आश्रित होता है, तो उसकी दृष्टि विश्वव्यापी हो जाती है, वह देश, जाति, घर्म, नस्ल, लिंगभेद आदि की सीमाओं और बंघनों से बाहर आकार प्रत्येक मानव की हित-कामना को अपना घ्येय बना लेता है और प्रत्येक मानव की पीड़ा को भीतर सँजोकर उसके प्रति गहरी संवेदना प्रकट करता है। महेंद्रभटनागर के पद्य साहित्य का अघिकांश भाग इसी संवेदना के मूल के आसपास रचित बड़ा भाग है, जिसमें समय-समय पर कवि महेंद्रभटनागर ने अपने भीतर के छटपटाते उद्गारों को समुचित और कारगर रूप में शब्दों के माघ्यम से अभिव्यक्ति दी है।
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