वंशी की उत्पत्ति के सम्बंध में चर्चा की जाए तो इस सम्बंध में वैसे कोई ठोस प्रमाण तो नहीं मिलते लेकिन इतना अवश्य है कि इसकी उत्पŸिा का आधार भी कोई न कोई प्राकृतिक-स्रोत या जीव-जन्तु ही रहा होगा जहाँ से प्रेरणा पाकर तत्कालीन मानव ने ऐसे वाद्यों के निर्माण की बात सोची होगी। महाकवि कालिदास जी ने अपने ग्रंथ ‘कुमार-सम्भव’ में ‘वंशी’ वाद्य की उत्पत्ति की बात की है जिसमें उन्होंने लिखा है कि भौरों (जंगली कीड़े) द्वारा छिद्रित बंस-नली में तीव्र गति से प्रवाहित होने वाली वायु के प्रवेश होने पर मधुर ध्वनि की उत्पत्ति हो रही थी जिसे तत्कालीन मानव ने सुना और उससे काफी प्रभावित हुए और उन्होंने उस बाँस-वृक्ष से उस बाँस-नली को काटकर अलग कर लिया और अपने मुख द्वारा वायु भर कर उसका वादन करने का प्रयास किया होगा और बाद में उसे एक वाद्य के रूप में प्रचलित किया। अतः सम्भव है कि ‘सुषिर’ वाद्यों की उत्पत्ति इसी रूप में हुई होगी तथा धीरे-धीरे उनका विकास होता गया और परिणामस्वरूप वर्तमान समय में बहुत से ‘सुषिर’ वाद्य प्रकार हमारे समक्ष विद्यमान हैं।
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