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लोकायतिक सिद्धांतों की आचार-मीमांसीय समीक्षा

विजय कुमार
Page No. : 36-38

ABSTRACT

उपनिषद् काल के बाद और बौद्ध-जैन दर्षन के प्राकट्य से पहले कर्मकाण्डीय विचारधारा के विरोध के फलस्वरूप लोकायतिक मान्यताओं के पनपने का काल विद्वान् लोग निष्चित करते हैं। छान्दोग्य उपनिशद, अर्थषास्त्र, महाभाश्य आदि ग्रंथों में चार्वाक् की चर्चा इस दर्षन के प्राचीनत्व के पुश्ट प्रमाण हैं। संप्रति 20 मूल बार्हस्पत्यसूत्रों के अलावा, प्रबोधचन्द्रोदय, सर्वदर्षनसंग्रह आदि ग्रंथों में चार्वाक् विचार मिलते हैं। प्रायः पूर्वपक्ष के रूप में अनेक स्थलों पर चार्वाक् विचारधारा दृश्टिपथ को अवतरित करती है। जड़वाद, अनात्मवाद, अवैदिकवाद, अनीष्वरवाद, देहात्मवाद, स्वेच्छाचारवाद, स्वभाववाद अतिभौतिकवाद आदि इस दर्षन के मूलसिद्धांत हैं। प्रत्यक्षवादी होने के कारण आकाष,  परलोक आदि का निशेध ये लोग करते हैं। यद्यपि उच्चस्तरीय स्थिति पर गीता भी वेदप्रतिपादित सकामवाद की निन्दा करती है, लेकिन ईष्वरवाद में आस्था जताती है। आत्मा के अस्तित्व को तो बुद्ध जी भी नहीं मानते थे परन्तु फिर भी उन्हें इस बात का आभास था कि बिना मर्यादाओं के सुखमय जीवनयापन संभव नहीं। राजा व दण्डनीति के प्रति इनकी आस्था अकाट्य है, ष्लाघनीय है, जो साम्प्रतिक संदर्भों में भी तर्कसंगत व  औचित्यपूर्ण ठहरती है। लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि चार्वाक् सम्मत जीवन-दर्षन सभ्य व संवेदनषील समाज के लिए उपयुक्त कतई नहीं ठहरता। षायद, प्रारम्भिकावस्था में इतना स्थूल-चिन्तन ना रहा हो, बाद में प्रतिपक्षियों ने अपने ग्रंथों में इसे विकृत रूप दे दिया हो।


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