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प्रस्थानत्रयी में ’माया’ विवेचन: षांकरभाश्य के आलोक में

विजय कुमार
Page No. : 5-8

ABSTRACT

’माया‘ षब्द दर्षनषास्त्र का एक प्रसिद्ध बहु आयायी-अर्थ वाला पारिभाशिक षब्द है। ऋगवेद में लगभग 102 बार इस षब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थो में किया गया है।पंचमण्डल में ‘माया‘ षब्द वरुण देवता की महती प्रज्ञा के लिए आया है।इसी प्रकार अन्य वेदों व वैदिक साहित्य में इस षब्दका बहुत प्रयोग हुआ है।प्रष्नोपदिशद् में ‘माया‘ षब्द बुद्धि की कुटिलता अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जिसमें कुटिलता का लेषमात्र भी नहीं है जो असत्य-भाशण से पृथक् है वही अमृतमय पद का अधिकारी होता है, ऐसा वर्णन यहा मिलतांॅ है। ष्वेताष्वतर-उपनिशद् में आये ‘माया‘ षब्द का अर्थ षांकरभाश्य में ’सुख-दुख मोहात्मक विष्वमाया’ रुप में किया गया है। अन्यत्र ‘माया‘ को ‘प्रकृति‘ ‘महेष्वर‘ को ’मायापति’ कहा गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृश्ण ने परमेष्वर की माया को अलौकिक त्रिगुणात्मक बताया है। अन्यत्र ज्ञान का नाष करने वाली(हरण करने वाली) बताया है। गीता में अन्य स्थलों पर ‘माया‘ को ‘योगमाया‘ के रुप में वर्णित किया है । यहां पर भी ‘माया‘ का अर्थ ईष्वरीय-माया बताया गया है।
“नाहं प्रकाषः सर्वस्य योगमाया समावृतः”
-श्रीमद्भगवद्गीता 7.25 बादरायण कृत ब्रह्मसूत्रों में ‘माया‘ षब्द केवल एक बार प्रयुक्त हुआ है। इस सूत्र की व्याख्या में षंकराचार्य ने स्वप्न में सृश्टि को पारमार्थिक नहीं, बल्कि कहते है कि स्वप्न में सृश्टि माया ही है; उसमें परमार्थ का लेषमात्र भी नहीं है ।


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